आंतरिक व्यापार

मध्यकालीन भारत में आन्तरिक व्यापार
मध्यकालीन भारत में व्यापार एवं वाणिज्य के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ थीं। राजमार्गों द्वारा गाँवों, कस्बों एवं शहरों को राजधानी से जोड़ा गया जिससे देश में मार्गो का जाल सा फैल गया। सल्तनत काल में अधिकतर दिल्ली ही राजधानी रही तथा सुल्तान सिंकदर लोदी ने अपने शासनकाल में राजधानी आगरा स्थानान्तरित कर दी। शाहजहाँ के शासनकाल के उत्तरार्ध में राजधानी पुनः दिल्ली स्थानान्तरित की गई। अतः दिल्ली एवं आगरा दोनों शहरों को राजमार्गो द्वारा प्रान्तीय राजधानियों से जोड़ा गया। इसी भाँति नदियाँ भी जल-मार्गों द्वारा अनेक प्रान्तों एवं शहरों को जोड़ती थीं। यद्यपि थल मार्ग पूर्णतः सुरक्षित नहीं थे परन्तु प्रशासन की ओर से सुरक्षा प्रदान करने की चेष्टा की गई। थल यातायात के साधनों में घोड़े, बैल, खच्चर, ऊंट, हाथी, बैलगाड़ियों आदि का प्रयोग किया जाता था तथा जल-यातायात के लिए बड़ी एवं छोटी नौकायें उपलब्ध थीं।
आंतरिक व्यापार
आर्थिक दृष्टि से सभी प्रदेशों को एक दूसरे पर निर्भर करना पड़ता था क्योंकि कुछ प्रदेशों में अमुक वस्तु का अतिरिक्त उत्पादन होता था तो उसी वस्तु का उत्पादन अन्य प्रदेश में आंतरिक व्यापार कम होता था। व्यापार एवं वाणिज्य की प्रक्रिया व्यापारी समुदाय के विभिन्न तत्वों द्वारा सम्पादित होती थी। इस समुदाय में थोक व्यापारी, खुदरा व्यापारी, बंजारे, दलाल, दुकानदार आदि सम्मिलित थे। देश के विभिन्न प्रदेशों में विविध वस्तुओं की बढ़ती हुई माँग की आपूर्ति का कार्य इन्हीं के द्वारा सम्पन्न किया जाता था। व्यापारिक गतिविधियों मे दलालों की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी। दलाल क्रेता एवं विक्रेता के बीच मध्यस्थ का कार्य करते तथा दोनों पक्षों से ही दलाली लेते थे और कभी-कभी उनका शोषण भी करते थे। सुल्तान अलाउद्दीन खलजी ने अपने बाजार नियंत्रण सम्बन्धी आदेशों द्वारा व्यापार से दलाली का अंत कर दिया जिससे व्यापारियों को दलालों के शोषण से मुक्ति मिली। परन्तु सुल्तान फिरोजशाह तुगलक के शासनकाल में दलाल पुनः सक्रिय हो गए तथा शासन द्वारा इन पर नियंत्रण स्थापित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। बड़े व्यापारी प्रमुख शहरों अथवा व्यापारिक केन्द्रों पर अपने प्रतिनिधि रखते थे जो उनके हितों की रक्षा करते थे। व्यापारियों को ऋण देने का कार्य महाजन अथवा साहूकार करते थे जो राज्य द्वारा निर्धारित दस से बीस प्रतिशत तक वार्षिक दर से ब्याज लेते थे। व्यापारी वर्ग धन अर्जित करने की लालस में अनैतिक ढंग अपनाने, जैसे कम तौलने, मिलावट करने आदि में कोई संकोच नहीं करता था। परन्तु सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने बाजार नियंत्रण व्यवस्था के अंतर्गत उन पर कठोर प्रतिबंध लगाये तथा ऐसा करने वालों को दण्डित किया। सभी वस्तुओं का मूल्य निर्धारित कर दुकानदारों एवं व्यापारियों को मूल्य-सूची के आधार पर विक्रय करने का आदेश दिया। वह अपने इन सुधारों के द्वारा बाजार की अनियमितताओं पर अंकुश लगाने में सफल हुआ। इस काल में विविध वस्तुओं के लिए प्रथम बाजार अथवा मण्डियाँ हुआ करती थी जहाँ स्थानीय तथा गैर-स्थानीय व्यापारी अपनी वस्तुओं का विक्रय करते थे। इसके अतिरिक्त गाँवों तथा कस्बों में साप्ताहिक बाजार तथा धार्मिक पर्वो पर हाटें लगती थीं जहाँ लोग क्रय-विक्रय किया करते थे।
देश के विभिन्न प्रदेशों के अतिरिक्त उत्पादन एवं वहाँ की आवश्यकता की आपूर्ति व्यापारियों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। गुजरात एक प्रधान व्यापारिक केन्द्र था जहाँ से विभिन्न प्रदेशों का माल पहुँचता था। वहाँ का कपड़ा उद्योग उन्नतशील था आंतरिक व्यापार जिससे वहाँ के बहुमूल्य कपड़े विभिन्न प्रदेशे को जाते थे। बंगाल से चीनी, चावल एवं कपड़े विभिन्न प्रदेशों को जाते थे। आगरा नील एवं गेहूँ का प्रमुख व्यावसायिक केन्द्र था। मालावार के एशिया एवं अफगानिस्तान से यहाँ आने वाली वस्तुएं विभिन्न प्रदेशों को पहुँचती थीं। सिंध गेहूँ, सूती कपड़ों, घोड़ें आदि का एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र थे। काश्मीर से शाल एवं ऊनी कपड़े अन्य प्रदेशों को जाते थे। दास- व्यापार के लिए दिल्ली, बदायूँ, वरन (वर्तमान बुलंदशहर), सिंध, बंगाल, दवागार, बीदर इत्यादि प्रमुख केन्द्र था। घोड़ों के क्रय-विक्रय के लिए दिल्ली, बंगाल, सिंध, मुल्तान गुजरात आदि प्रमुख बाजार थे।
16वीं शताब्दी में व्यापार के विकास के लिए उपयुक्त परिस्थितियाँ उपलब्ध थी। शेरशाह सूरी ने अनेक राजमार्गों का निर्माण करवाया। राजमार्गों पर स्थान-स्थान पर सराय भी निर्मित किए गए जहाँ यात्रियों के ठहरने के लिए उचित व्यवस्था की गई। अब इन सरायों में व्यापारी भी रुकने लगे। मुगल बादशाहों ने भी प्रशासनिक सुविधा के लिए अनेक राजमार्गों का निर्माण करवाया जिससे राजधानी एवं विभिन्न प्रदेशों के मध्य यातायात में सुधार हुआ।। मुगल प्रशासन ने मार्गों की सुरक्षा की ओर ध्यान दिया जिससे व्यपारिक गतिविधियों में तीव्रता आई। अब व्यापारी स्वतंत्रतापूर्वक एक प्रदेश से माल खरीद कर उसे दूसरे प्रदेशों में ले जाकर अधिक मूल्यों पर बेचते थे। फलस्वरूप व्यापार की वस्तुओं में विधिधता बढ़ी तथा मात्रा में भी वृद्धि हुई। यद्यपि आंतरिक व्यापार अधिकतर थल-मार्गों से होता था परन्तु जल-मार्गों से भी कुछ व्यापार होता था जो कुछ सस्ता पड़ता था। सिंधु नदी की धारायें मुल्तान, लाहौर तथा काश्मीर के गाँवों एवं शहरों के मध्य सम्पर्क स्थापित करती थीं। जमुना नदी को दिल्ली एवं इलाहाबाद से जोड़ती थी। गंगा नदी के द्वारा माल इलाहाबाद, बनारस, पटना होते हुए बंगाल में ढाका तक पहुँचता था। जल मार्गों से ही नमक, शीशा, लोहा, अफीम, रुई, उत्तम श्रेणी के कपड़े इत्यादि बंगाल भेजे जाते थे। व्यापारियों को स्थान-स्थान पर चुंगी, राहदारी, तमगा, मीर बहरी आदि देने पड़ते थे। अकबर ने व्यापार को प्रोत्साहित करने के लिए राहदारी एवं कुछ अन्य कर समाप्त कर दिए थे। जहाँगीर ने अपने सिंहासनारोहण पश्चात तमगा एवं मीर बहरी नामक करों को समाप्त कर दिया था। औरंगजेब ने अपने शासनकाल में बड़े व्यापारिक केन्द्रों में विभिन्न वस्तुओं के प्रवेश एवं विक्रय पर लिए जाने वाले करों को समाप्त कर दिया था जिससे आंतरिक व्यापार को प्रोत्साहन मिला। औरंगजेब ने व्यापार की ओर मुसलमानों की अभिरुचि को आकर्षित करने के उद्देश्य से उनकी वस्तुओं पर चुंगी की दर पाँच प्रतिशत से दो प्रतिशत करने का आदेश दिया था।
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आंतरिक व्यापार
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ईज ऑफ डूइंग बिजनेस (ईओडीबी)
कंटेंट ओन्ड ब्यय यू.टी दादरा और नगर हवेली और दमन और दीव का प्रशासन। भारत सरकार
आंतरिक व्यापार का अंग्रेजी अर्थ
Domestic trade, different from international trade, is the exchange of domestic goods within the boundaries of a country. This may be sub-divided into two categories, wholesale and retail. Wholesale trade is concerned आंतरिक व्यापार with buying goods from manufacturers or dealers or producers in large quantities and selling them in smaller quantities to others who may be retailers or even consumers. Wholesale trade is undertaken by wholesale merchants or wholesale commission agents.
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आंतरिक व्यापार का अंग्रेजी मतलब
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